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उत्पत्ति
वैद्यनाथधाम की पावन भूमि में हिंदी विद्यापीठ , देवघर की स्थापना सन १९२९ ई० में की गई । हिंदी भाषा के प्रचार - प्रसार एवं अध्ययन - अध्यापन के उद्देश्य से इसका केंद्र हमेशा उत्तर - पूर्वांचल में रहता आ रहा है । समय समय पर इस संस्था को महान विचारकों , मनीषियों , विद्वानों , राजनेताओं का आशीर्वचन प्राप्त होता रहा है । आज यह संस्था १५.०५ एकड़ के विशाल भूखंड पर चारों ओर सुरक्षित चहारदीवारी के साथ अवस्थित है।


डॉo
लक्ष्मीनारायण `सुधांशु', श्री जनार्दन प्रसाद झा `द्विज', श्री बुद्धिनाथ झा `कैरव'
आदि साहित्यकारों के साथ साथ राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़े समाजसेवी श्री
रामेश्वर लाल सर्राफ, पंडित विनोदानन्द झा, पंडित शिवराम झा, श्री महेश्वर
प्रसाद झा, श्री रामराज जेजवाड़े, श्री गौरी शंकर डालमिया, श्री चलबल झा आदि
संस्थापक सदस्य इसे अपना सतत सहयोग प्रदान करते रहे । इन लोगों के प्रखर व्यक्तित्व
की प्रेरणा से यहाँ के तत्कालीन छात्र श्री प्रताप साहित्यालंकार, श्री के. गोपालन
, गोड्य्या, वसवैया, वेंकटेश्वर राव, राम कुमार देशपाण्डे, प्रफुल्ल चन्द्र
पट्टनायक , शुद्धदेव झा ` उत्पल ' , विरंचि वांछित मुखर्जी ,
राम नारायण हाँसदा ,
भीम किस्कू , रघुनाथ सोरेन , चलसानि सुब्बा राव , पारसमणि क्रेना आदि के हृदय में
भी राष्ट्रप्रेम की भावना का उभार उबाल ले रहा था । यही कारण था कि राष्ट्रीय
आन्दोलन के समय इस संस्था के सभी विद्यार्थियों के साथ - साथ , सारे शिक्षक -
कार्यकर्ता आदि राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत हो सम्पूर्ण समर्पण के साथ आजादी की
लड़ाई में कूद पड़े । इनकी बलिदान भावना के कारण यह संस्था आजादी की मशाल बन गई । एक
- एक कार्यकर्ता बलिपंथ का सिपाही बनकर मातृभूमि की वेदी पर प्राण निछावर करने
के लिए अपनी बाट जोहता व्याकुल रहने लगा । इस कारण इसे ब्रिटिश सरकार की आंख की
किरकिरी बनते देर न लगी । इस समय यह संस्था न केवल वैद्यनाथधाम बल्कि सम्पूर्ण
संतालपरगना का प्रेरणा - स्रोत बनकर राष्ट्रीय भावना उद्दीप्त करने का महत कार्य
करने लगी। इसमें पंडित शिवराम झा का योगदान अमूल्य रहा ।
स्वातंत्र्य
आन्दोलन के तेजोमय प्रखर व्यक्तित्व एंव नेतृत्व क्षमता के धनी भविष्य द्रष्टा पंडित
विनोदानंद झा के प्रस्ताव एवं कविवर बुद्धि नाथ झा `कैरव' के समर्थन से गोवर्धन
साहित्य महाविद्यालय के सभी विभागों को मिलाकर हिंदी विद्यापीठ नाम दिया गया । १२
फ़रवरी १९३६ को इस संस्था के वार्षिकोत्सव की अध्यक्षता करने यहाँ
पधारे देशरत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद जी ने , यहाँ के संचालकों व नगर के
गणमान्य व्यक्तियों के आग्रह पर संस्था का सर्वोच्च कुलपति - पद ग्रहण करना स्वीकार
कर लिया । इसके बाद यह संस्था राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हो गयी । राजेंद्र बाबू
आजीवन कुलपति पद पर आसीन रहकर इसे आवश्यक दिशा - निर्देश देते रहे । १९५२ में जब
देश के प्रथम राष्ट्रपति के रूप में ये हिंदी विद्यापीठ के वर्तमान परिसर में पधारे
तब इस संस्था के इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय की तरह यह प्रसंग जुड़ गया । इस शुभ
अवसर की स्मृति अक्षुण्ण रखने के लिए हिंदी विद्यापीठ के मुख्य भवन के ठीक सामने उस
समय का ऐतिहासिक राजेंद्र मंच राजेंद्र बाबू की आवक्ष प्रतिमा के साथ आज भी
खड़ा है । १९६३ में इनके देहावसान से इस संस्था को जबर्दस्त आघात लगा । समूचे
राष्ट्र के साथ - साथ हिंदी विद्यापीठ भी मर्माहत हो उठा । किन्तु , इस दुःखद
स्थिति से इसे कर्म की एक नयी प्रेरणा भी मिली ।
विद्यावाचस्पति डॉo लक्ष्मी नारायण सुधांशु का हिंदी विद्यापीठ , देवघर की स्थापना में अहम् योगदान रहा ।
सर्वप्रथम गोवेर्धन साहित्य महाविद्यालय के आदि प्राचार्य पद को इन्होंने सुशोभित किया। डॉo राजेंद्र प्रसाद के
बाद ये हिंदी विद्यापीठ के कुलाधिपति पद पर अधिष्ठित हुए । वे जाने - माने साहित्यकार थे तथा बिहार विधान
सभा के अध्यक्ष पद को भी इन्होंने सुशोभित किया ।
डॉo लक्ष्मी नारायण सुधांशु के बाद डॉo गंगा शरण सिंह जी का योगदान हिंदी विद्यापीठ के लिए चिरस्मरणीय रहेगा । इन्होंने सुधांशु जी के बाद
कुलाधिपति पद को सुशोभित किया । अखिल भारतीय हिंदी संस्था संघ , नयी दिल्ली की स्थापना इन्होंने की ।
वे संस्था संघ के संस्थापक अध्यक्ष थे । जाने - माने साहित्यकार तथा राज्य सभा के संसद सदस्य के रूप में ये काफी
चर्चित रहे ।
प्रोo नवल किशोर गौड़ जाने - माने साहित्यकार तथा हिंदी - साहित्य के प्रतिष्ठित आलोचक , शिक्षाविद
एवं कुशल प्रशासक के रूप में चर्चित रहे । वे प्रारंभ में
विद्यापीठ के प्रबंध परिषद् के सदस्य और १९७८ में
विद्यापीठ के कुलपति बने । १९९४ से २००० तक इन्होंने विद्यापीठ के कुलाधिपति पद को सुशोभित किया ।
हिंदी विद्यापीठ पत्रिका को शोध - पत्रिका के रूप में स्थापित करने का श्रेय इन्हें ही प्राप्त है ।
हिंदी के माध्यम से उच्च स्तरीय
अध्ययन - अध्यापन की व्यवस्था तो विद्यापीठ के द्वारा की जा चुकी थी किन्तु ,
हिंदी एवं हिंदीतर भाषाओं और उनके साहित्य एवं अन्य विषयों के शोध की व्यवस्था अब
तक नहीं हो पाई थी । विद्यापीठ को प्रगति के पथ पर निरंतर अनुप्राणित करते रहने
वाले अपने अभिभावक की पुण्य स्मृति में इस अभाव की पूर्ति के लिए ` राजेंद्र शोध
संस्थान ' के नाम से विद्यापीठ के अंतर्गत एक नए शोध संस्थान की स्थापना की गयी ।
बी. एन. कॉलेज , पटना के भूतपूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष एवं टी. एन. बी. कॉलेज
, भागलपुर के अवकाश प्राप्त , प्राच्य विद्या-विशारद डॉ. जनार्दन प्रसाद मिश्र इसके
प्रथम निदेशक के रूप में अधिष्ठित किये गए ।
हिंदी और संस्कृत के प्रख्यात विद्वान डॉo विद्या निवास मिश्र प्रोo नवल किशोर गौड़ के
बाद हिंदी विद्यापीठ के कुलाधिपति बने ।
इन्होंने २००१ से २००६ तक हिंदी विद्यापीठ के कुलाधिपति पद को सुशोभित किया ।
द्वादश ज्योतिर्लिंग की अवस्थिति के कारण वैद्यनाथधाम , देवघर की विश्वस्तरीय
ख़्याति है । पिछले कई दशकों से प्रत्येक वर्ष केवल श्रावण मास में यहाँ आनेवाले
दर्शनार्थियों की संख्या लाखों तक पहुँच जाती है । इसी पावन भूमि में वैद्यनाथ मंदिर
से एक किलोमीटर उत्तर विस्तृत भूखंड में हिंदी विद्यापीठ अवस्थित है । अपने स्थापना
काल में नवम्बर १९२९ से १९५० तक यह संस्था गोवर्धन साहित्य विद्यालय के रूप में
शिवगंगा तट स्थित एक - छोटी सी जगह में शुरू हुई । अपने शैशव काल में
निरंतर अर्थाभाव से जूझते हुए भी देवनागरी लिपि में राष्ट्र भाषा हिंदी के माध्यम
से शिक्षा प्रदान करने का महत्वपूर्ण दायित्व यह निर्वहण करती रही ।
डॉo विद्यानिवास मिश्र के बाद हिंदी पत्रकारिता जगत के प्रमुख हस्ताक्षर
श्री प्रभाष जोशी हिंदी विद्यापीठ के कुलाधिपति हुए ।
श्री जोशी दैनिक जनसत्ता के कुशल संपादक के साथ - साथ साहित्यकार , विचारक और लेखक भी रहे । इन्होंने २००६ से मृत्युपर्यन्त
हिंदी विद्यापीठ के कुलाधिपति पद को सुशोभित किया ।
ख्याति प्राप्त साहित्यकार डॉo अशोक वाजपेयी वर्त्तमान में हिंदी विद्यापीठ के
कुलाधिपति पद को सुशोभित कर रहे हैं । डॉo वाजपेयी जी ललित कला अकादमी के अध्यक्ष के साथ - साथ
महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्व विद्यालय के चेयरमैन भी रह चुके हैं । इन्हें १९९४ में साहित्य अकादमी अवार्ड से सम्मानित भी किया जा चुका है ।
योग्य पिता के योग्य पुत्र श्री कृष्णानंद झा जी सामाजिक - राजनीतिक
गतिविधियों की सक्रियता के बीच भी साहित्यिक - सांस्कृतिक और शैक्षणिक कार्यों के
लिए रुचिपूर्वक समय निकाल लेते हैं । इन्होंने हिंदी विद्यापीठ की प्रबंध परिषद् के
सदस्य के रूप में निर्भीक भाव से संस्था के हित में सदैव निश्शंक होकर
सुझाव दिए । १९८२ - ८३ में संस्था के सयुंक्त व्यवस्थापक के रूप में इनके चुनाव से
हिंदी विद्यापीठ के विकास का अत्याधुनिक चरण शुरू होता है । यह दौर इनकी
राजनीतिक सक्रियता का भी सघन दौर था । लेकिन अपनी कार्य - शैली
और चिंतन की वैज्ञानिक प्रणाली से इन्होंने चहुंओर के सभी कार्यों को , पूरी दक्षता
के साथ मुकम्मल अंजाम देकर प्रगति और विकास का नया कीर्तिमान स्थापित किया । १९८७
में संस्था के व्यवस्थापक के रूप में इनकी कार्यक्षमता की खुशबू राष्ट्रीय स्तर तक
पहुंची । ये भारत सरकार की कई प्रमुख समितियों के साथ - साथ अखिल भारतीय हिंदी
संस्था संघ के उपाध्यक्ष का गुरुतर दायित्व निर्वहण करते हुए हिंदी विद्यापीठ को विकास
की उस मंजिल की ओर लिए जा रहे हैं , जिसके आगे राह नहीं । विद्यापीठ परिसर
साहित्यिक , सांस्कृतिक तीर्थ बनकर उभरा है । यहाँ का अत्याधुनिक ऑफसेट प्रेस ,
संगणक केंद्र , विशाल तिमंजिला मुख्य भवन , भव्य अतिथिशाला , सुसज्जित सभा भवन ,
पुस्तकालय भवन , छात्रावास आदि जैसे इनकी कीर्तिकथा कहने के लिए कम हैं , विद्यापीठ
परिसर में आधुनिक शिक्षा पद्धति के अनुरूप राष्ट्रीय स्तर का आवासीय विद्यालय
तक्षशिला विद्यापीठ इनकी देख - रेख में संचालित हो रहा है ।
जिस काल - खण्ड में ये हिंदी विद्यापीठ के व्यवस्थापक चुने गए , उसी काल - खण्ड में
श्री नरसिंह पण्डित जी गोवर्धन साहित्य महाविद्यालय के प्राचार्य नियुक्त
हुए । पंडित जी की कल्पना के योग्य शिल्पकार के रूप में कृष्णानंद झा जी के नेतृत्व
में हिंदी विद्यापीठ के स्वर्णिम इतिहास में कुछ और नए हीरक पृष्ठ अभी जुड़ेंगे ।
